गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म सन् 1890 ई. में हुआ था। इकतालीस वर्ष की अल्पायु
में सन् 1931 ई. में दिवंगत हुए। उनकी मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी। कानपुर शहर
में हुए सांप्रदायिक तनाव में लोगों को सुरक्षित निकालकर सही जगह पहुँचाने
अकेले ही निकल पड़े थे। काफी प्रयासों के बाद उन्होंने कुछ परिवारों को
सुरक्षित निकाला भी, किंतु उनके खिलाफ प्रायोजित क्रूर षड्यंत्र में उन्हें
अपनी जान गँवानी पड़ी। दो दिन बाद उनका जला हुआ शरीर मिल पाया। वे कानपुर शहर
ही नहीं बल्कि संपूर्ण देश के वीर पुरुष थे। उनका व्यक्तित्व असाधारण था।
दुबली-पतली काया के स्वामी विद्यार्थी जी साहसी न होकर दुस्साहसी थे। कानपुर
के सांप्रदायिक तनाव का प्रकरण हो या देश के अन्य मसले, वे सबसे आगे रहते थे।
उनके भाषण, लेख व संपादकीय लेख प्रमाण हैं। वे कुशल संगठनकर्ता, उच्च नैतिक
मानदंड रखने वाले व्यक्ति थे। वे मूल्यों के लिए किसी भी तरह का समझौता नहीं
करते थे। तभी तो इकतालीस वर्ष की कुल आयु में उनका अधिकांश जीवन जेल में
व्यतीत हुआ। मृत्यु से ठीक पहले, जेल से बाहर आए थे।
पराधीन भारत, विद्यार्थी जी की चिंता का मुख्य विषय था। उन्होंने अपना समूचा
समय देश को स्वाधीन कराने में लगा दिया। देश की स्वतंत्रता के लिए देश के
नागरिकों को जागृत करने, उन्हें भावनात्मक रूप से बलवान बनाने और संगठित करने
का अत्यंत महत्वपूर्ण दायित्व, विद्यार्थी जी ने अंतिम साँस तक निभाया। ऐसा
अवसर सार्वजनिक जीवन जीने वाले लोगों के जीवन में कम ही आता है। वे राष्ट्रीय
प्रश्नों पर बहुत मुखर व निडर भाव से अपना पक्ष रखते थे। साहित्य के क्षेत्र
में वे अपना मार्गदर्शक सरस्वती संपादक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी को तो
राजनीतिक क्षेत्र में राष्ट्रपति महात्मा गांधी और लोकमान्य तिलक को मानते थे।
महावीर प्रसाद द्विवेदी से, विद्यार्थी जी ने भाषा का संयम सीखा। यह सत्य
आश्चर्य में डालता है कि विद्यार्थी जी बहुत उत्तम कोटि की हिंदी लिखते थे। इस
बात के ढेरों प्रमाण 'प्रताप' और 'प्रभा' में लिखे लेख व संपादकीय टिप्पणियाँ
आदि हैं। ऐसे ही राजनीतिक दृष्टि के विकास में एक तरफ वे लोकमान्य तिलक की
उग्र राजनीति का समर्थन करते थे। अर्थात् विद्यार्थी हृदय से तिलक की
राजनीतिक-दृष्टि के हिमायती थे। साथ ही वे गांधी जी के अहिंसावादी राजनीति का
भी समर्थन करते थे। इस प्रकार तत्कालीन भारतीय राजनीति में प्रचलित दोनों ही
दृष्टियों से उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता विकसित हुई थी। वे क्रांतिकारियों का
भी समर्थन करते थे। छिपकर नहीं, खुले तौर पर। शहीदे-आजम भगत सिंह ने भूमिगत
होकर 'प्रताप' में कुछ समय काम भी किया था। उन्होंने शाहजहाँपुर में अपने पैसे
से अशफाक-उल्ला की समाधि बनवाई थी। विद्यार्थी जी सिंह जैसे निडर व्यक्ति थे।
उन्हें किसी भी तरह का प्रलोभन उनके संकल्प से तिलभर भी डिगा नहीं सकता था।
डॉ. राम विलास शर्मा द्वारा विद्यार्थी जी के बारे में की गई मौखिक टिप्पणी,
उनके महत्व को गंभीरता से रेखांकित करती है - ''गणेशशंकर विद्यार्थी के
असामयिक निधन से, राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक विकास
का जितना नुकसान हुआ, उतना कांग्रेस के किसी दूसरे नेता के मरने से नहीं
हुआ।''
गणेशशंकर विद्यार्थी प्रतिपल राष्ट्रीय मूल्यों के लिए दृढ़ संकल्पित थे।
उन्हें समझौते करना पसंद नहीं था। यही कारण है कि उन्हें बार-बार अँग्रेजी
साम्राज्य के षड्यंत्रों का शिकार होना पड़ता था। 'प्रताप' पर बार-बार
पाबंदियां लगाई जाती थीं। जमानत माँगी जाती थी। इन सब दबावों के बावजूद
विद्यार्थी जी हिमालय की तरह अडिग थे - ''प्रताप को शुरू हुए कुल एक ही वर्ष
पूरा हुआ था कि 24 अप्रैल, 1915 को रात के समय प्रताप के प्रेस और कार्यालय
तथा विद्यार्थी जी और मिश्र जी के आवासों पर पुलिस ने छापा मारा। एक-एक चीज,
एक-एक कागज की तलाशी ली गई और अंत में ग्राहकों के पतों के रजिस्टर तथा जर्मन
जासूस की राम कहानी व युद्ध की कहानियाँ नामक पुस्तकों की सभी उपलब्ध प्रतियाँ
पुलिस उठवा ले गई। इस तलाशी का जन-साधारण पर मनोवैज्ञानिक असर यह पड़ा कि लोग
अपनी ग्राहकता समाप्त कराने लगे, हॉकरों एवं एजेंटों ने अखबार उठाना बंद कर
दिया। फिर भी विद्यार्थी जी और मिश्र जी हताश नहीं हुए और घाटे के बावजूद
भरपूर उत्साह और जोश से अखबार निकालते रहे।''
अँग्रेजी सरकार ने 'प्रताप' को बंद करने के सारे उपक्रम किए, ग्राहकों पर
मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया, अखबार के हॉकर व एजेंटो को भी डराया, किंतु इस
प्रकार के घृणित हथकंडों ने विद्यार्थी जी के हौसले को और भी बढ़ा दिया। वे
दोगुने जोश के साथ 'प्रताप' निकालते रहे। 'प्रताप' कोई सामान्य अखबार नहीं था।
उसमें प्रकाशित सामग्री की आँच सहना, अँग्रेजी सरकार के लिए आसान कदापि नहीं
था। तभी तो वे बार-बार 'प्रताप' की राह में रोड़े अटकाने से बाज नहीं आते थे।
आज अखबार, कारपोरेट घरानों की स्वार्थ-सिद्धि में लगे हुए हैं या सरकार की
खुशामद में। विद्यार्थी जी चाहते तो वे इसके माध्यम से खूब अँग्रेजी सरकार से
पुरस्कार आदि प्राप्त कर सकते थे। किंतु उनका तो जन्म ही देश और उसके नागरिकों
के लिए हुआ था। उनको अपने लिए 'कुछ भी' काम्य नहीं था, सिवा भारत की स्वाधीनता
के और इस पुनीत व अत्यंत गंभीर काम के लिए विद्यार्थी जी ने अपना तन, मन, धन
सब कुछ निछावर कर दिया। भारत के सांप्रदायिक ऐक्य के लिए उन्होंने स्वयं को
'बलिदान' कर दिया। समूची मानवता के इतिहास में उनके जैसे कितने लोग होंगे,
जिन्होंने 'स्वहित' की उपेक्षा करके आत्मोत्सर्ग किया हो। 'आत्मोत्सर्ग' कोई
सामान्य सा काम नहीं है, जिसे जो चाहे आजमा ले। यह व्यक्ति के अत्युच्य नैतिक
होने, मानसिक रूप से दृढ़ होने और लक्ष्य-केंद्रिक होने पर ही संभव होगा। युवा
विद्यार्थी, अपने विचार और आचरण से हिमालय जैसी दृढ़ता वाले थे। इसको प्रमाणित
करने के लिए अलग से प्रमाण खोजने की आवश्यकता नहीं है। तमाम विपरीत
परिस्थितियों, बाधाओं के खड़ा हो जाने पर भी वे कभी विचलित नहीं हुए। यह उनकी
मानसिक-दृढ़ता का ही साक्ष्य है। उन्मादी दंगाइयों के बीच अकेले पहुँच जाना।
कैसी मानसिक शक्ति का परिचायक होगा। सहज अनुमान का विषय है। विद्यार्थी जी के
व्यक्तित्व की दृढ़ता उनके आरंभिक निबंधों में ही साफ-साफ झलकने लगी थी।
विद्यार्थी जी ने 'आत्मोत्सर्ग' नामक एक वैचारिक निबंध लिखा था जो अपने समय की
सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' के सितंबर 1911 के अंक में छपा।
विद्यार्थी जी की लेख के प्रकाशन के समय कुल आयु इक्कीस वर्ष थी। आज इक्कीस
वर्ष के नौजवानों के क्या हाल हैं? किसी से छिपा नहीं है। 21 वर्ष के युवक
गणेशशंकर विद्यार्थी ने उक्त लेख लिखकर मानो अपने जीवन का वैचारिक घोषणा-पत्र
प्रस्तुत कर दिया है। अंतिम साँस तक, उन्होंने वही किया, जिसे आत्मोत्सर्ग में
लिखकर वे लोगों से अपेक्षा कर रहे थे। हालाँकि यह लेख 1911 में छपा है, किंतु
गणेशशंकर विद्यार्थी ग्रंथावली के संपादक सुरेश सलिल ने लिखा है कि
'आत्मोत्सर्गता' संबंधी विचारों का बीज-वपन, विद्यार्थी जी के जीवन में मात्र
14 वर्ष की आयु में ही हो गया था - ''आत्मोत्सर्ग के जिस बीज-सूत्र का विकास
करते वे यहाँ दिखाई देते हैं। उसका बीज-वपन उनके मानसलोक में मात्र 14 वर्ष की
आयु में ही हो गया था और उसकी अभिव्यक्ति के लिए उसी अल्पायु में उन्होंने
हमारी आत्मोत्सर्गता नामक एक पुस्तक भी लिखी थी, जो प्रकाशित तो कभी नहीं ही
हुई, कालांतर में इसकी पांडुलिपि भी सुरक्षित नहीं रह पाई।''
'आत्मोत्सर्ग' निबंध गंभीर, भावना-प्रधान निबंध है, जिसमें विद्यार्थी जी,
'आत्मोसर्ग' क्या है? क्यों है? और किसे आत्मोसर्ग कहेंगे? आदि विषयों पर
बारीकी से विचार प्रस्तुत करते हैं। 'आत्मोत्सर्ग' किसी भी सामान्य काम के लिए
नहीं किया जाता है। ऐसा विद्यार्थी जी मंतव्य देते हैं - ''अच्छे काम करने के
लिए आत्मोत्सर्ग की विशेष आवश्यकता नहीं, परंतु यह निश्चित है आत्मोत्सर्ग
सुकर्म के लिए ही किया जाता है।''
विद्यार्थी जी की दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट है। कहीं कोई मिलावट या हिचक नहीं है।
आत्मोत्सर्ग, सत्कर्म, सुकर्म के लिए ही किया जाने वाला कार्य है। आगे अपने
इसी निबंध में वे आत्मोत्सर्ग करने वाले से साहस की अपेक्षा रखते हैं। उनका
साफ मानना है कि बिना साहस के स्वयं का बलिदान असंभव है। वे इस अनुच्छेद मे
अर्जुन, भीम, भीष्म, अभिमन्यु जैसे ढेरों नाम लेते हैं, जो साहस के पर्याय रहे
हैं। साहस की चर्चा करते हुए वे आत्मोत्सर्ग के लिए आवश्यक साहस पर फोकस करते
हुए उसे सामान्य साहस की श्रेणी से अलग करते हैं - ''आत्मोत्सर्ग के लिए
सर्वोच्च श्रेणी के साहस की आवश्यकता होती है। ऐसे साहस के काम करने के लिए
हाथ-पैर की बलिष्ठता आवश्यक नहीं, धन, मान इत्यादि का होना थी आवश्यक नहीं -
जिन गुणों का होना आवश्यक है वे हृदय की पवित्रता तथा उदारता और चित्त की
दृढ़ता है। ऐसे गुणों की प्रेरणा से उत्पन्न हुआ साहस तब तक पूर्णतया प्रशंसनीय
नहीं कहा जा सकता, जब तक उसमें एक गुण सम्मिलित है। इस गुण का नाम
कर्तव्यपरायणता है। कर्तव्य के विचार से युक्त होने पर ही साहसी मनुष्य
आत्मोत्सर्गी बन सकता है। कर्तव्य का विचार प्रत्येक साहसी मनुष्य में होना
चाहिए। इस विचार से शून्य होने पर, कोई भी मनुष्य, फिर चाहे उसके और विचार
कैसे ही अच्छे क्यों न हो, मानव जाति की कुछ भी भलाई नहीं कर सकता। अपने
कर्तव्य से अनभिज्ञ मनुष्य कभी परोपकार-परायण या समाज-हितचिंतक नहीं कहा जा
सकता। बिना इस विचार के मनुष्य अपने परिवार, नहीं-नहीं, अपने शरीर अथवा अपनी
आत्मा का कोई उपकार नहीं कर सकता। कर्तव्य-ज्ञानशून्य मनुष्य को मनुष्य नहीं,
पशु समझना चाहिए।''
उद्धृत वाक्यांश, विद्यार्थी जी की वैचारिक दृष्टि, उनके पक्ष और उनकी
जीवन-दृष्टि का बेबाक उदाहरण है। इससे विद्यार्थी जी की असंदिग्ध तेजस्विता के
दर्शन होते हैं। विद्यार्थी जी कांग्रेस और गांधी के साथ थे किंतु उनकी
सहानुभूति भारतीय स्वाधीनता-संग्राम में सक्रिय गरमदल व क्रांतिकारियों के साथ
थी और छिपे तौर पर नहीं। खुले तौर पर। यदि आत्मोत्सर्ग की पंक्तियों पर गौर
किया जाए तो साथ है कि, युवक गणेश अपनी मातृभूमि के मान, स्वाभिमान दुबारा
हासिल करने के बारे में कितने गंभीर हैं। वे जान रहे होते हैं कि उनके इस
आत्मोत्सर्ग संबंधी विचार-लेख से समाज में जड़ता तोड़ने में कुछ न कुछ कामयाबी
अवश्य मिलेगी जो उनका लक्ष्य है। कोई एक व्यक्ति वह चाहे कितना भी बली क्यों न
हो, मानसिक रूप से दृढ़ क्यों न हो? कोई बड़ा लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता तो भारत
की मुक्ति का प्रश्न तो निहायत जटिल प्रश्न था। युवक गणेश ने अपनी स्पष्ट सोच,
देशाभिमान-केंद्रिक दृष्टि से समूचे भारत वर्ष के सामने एक मजबूत प्रस्तावना
लिख दी, जिसे वे मात्र 14 वर्ष की आयु में लिख गए थे। लेख की अंतिम पंक्तियाँ
मार्मिक हैं और आह्वान-परक भी। ऐसा लगता है कि वे समूचे देशवासियों को
आत्मोत्सर्ग रूपी यज्ञ में सम्मिलित होकर पुण्यभागी बनने का अवसर प्रदान कर
रहे हों - ''यदि आप आत्मसर्गी बनने के अभिलाषी हों तो आपको अवसर की राह देखने
की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि आत्मोत्सर्ग करने का अवसर प्रत्येक मनुष्य के
जीवन में पल-पल में आया करता है। देश, काल और कर्तव्य का विचार कीजिए और
स्वार्थरहित होकर साहस को न छोड़ते हुए कर्तव्य-परायण बनने का प्रयत्न कीजिए।''
विद्यार्थी जी का मानव स्वत्व नामक एक महत्वपूर्ण लेख है जो 17 मई 1914 के
'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था। लेख मानवाधिकारों पर है। यह उस वक्त लिखा गया
था, जब ब्रिटिश संसद के निचले रूप में मानवाधिकारों संबंधी एक विधेयक
सर्व-सम्मति से पास हुआ था। एक तरफ ब्रिटिश संसद अपने गोरे नागरिकों के
मानवाधिकारों को सुरक्षित रखने की विधिक व्यवस्था बना रही थी, वहीं दूसरी ओर
अपने द्वारा शासित उपनिवेशों में मानवाधिकारों की जमकर धज्जियाँ उड़ा रही थी।
विद्यार्थी जी ने अँग्रेजों के इसी छद्म और दो-मुँहापन को लक्ष्य करके उक्त
लेख लिखा था। इसमें उन्होंने भारतवासियों को जगाने वाले शब्दों में कहा है कि
बहुमूल्य वस्तुएँ मुफ्त में नहीं मिला करती हैं। उनके लिए कीमत देनी पड़ती है
और जो जाति यह कीमत देता जानती है, सिर्फ वही स्वत्व का उपभोग कर सकती है,
बाकी नहीं - ''पर स्वत्व सहज ही नहीं प्राप्त होते। संसार में उनके लिए नदियों
रक्त बहा है। स्वत्व की बेदी पर सिर चढ़ाने का साहस उन्हीं को हुआ, जिनमें
कर्तव्य का भाव था, जिन्हें निरकुंशता से घृणा थी, जो उसका मूलोच्छेद करना
अपना धर्म समझते थे और जिनमें इस काम के लिए प्राणों का तनिक भी मोह न था।
उनकी तत्परता के आगे संसार को उन्हें रास्ता देना पड़ा। वे मनुष्य समझे गए और
उन्हें मानव-स्वत्व प्राप्त हुए। परंतु जिन्होंने रक्त की जगह पसीना भी न
बहाया हो, जो स्वयं निरंकुश और जिन्होंने करोड़ों भाई-बहनों को गुलामी की बेड़ी
में जकड़ रखा हो, उन्हें हाथ पैर हिलाए और ऊँचे उठे बिना आशा भी न रखनी चाहिए
कि संसार उन्हें मनुष्य भी समझेगा। भारतीयों के लिए पेरिया और नामशूद्र घृणा
के पात्र हैं, पर संसार के पेरिया और नामशूद्र भारतीय स्वयं ही हैं। मानव
स्वत्व मिला नहीं करते, उन्हें लेता पड़ता है। बले चाहिए, बाल।''
विद्यार्थी जी ने अपनी सरल लेकिन विचारोंत्तेजक तक निबंध शैली में भारतीयों को
अपने आप व मान के बारे में सजग रहने व अपने हक के लिए दूसरों पर निर्भर रहने
की बात कही है। उन्होंने स्पष्ट संकेत व संदेश दिया है कि, 'स्वत्व मिला नहीं
करते। उन्हें लेता पड़ता है।' और लेने के लिए 'बल चाहिए बल'। सारे भारतवासियों
को साफ चुनौती है। अपनी सहिष्णु, सर्वक्षमावादी, उदार प्रकृति से बाहर आकर
स्वयं को मनुष्य रूप में जीवन जीने का अधिकार प्राप्त कर लें। साथ ही उन्होंने
यह भी कह दिया कि हम अपने वर्णश्रेष्ठ होने पर फूले नहीं समाते हैं। प्रत्येक
इस श्रेष्ठता-ग्रंथि से बुरी तरह प्रभावित है। यहाँ हर एक आदमी, सामने वाले से
बड़ा है, श्रेष्ठ है। विद्यार्थी जी ने साफ कह दिया कि, विश्व के लिए सारे
भारतवासी पेरिया और नामशूद्र हैं। अर्थात् सामाजिक रूप से निम्न हैं। ये तो
झूठ-मूठ का दंभ पाले हुए हैं। वर्ण और जाति की जड़ श्रेष्ठता का। देश पराधीन
है, लोग विपन्न हैं, अस्वस्थ हैं, बेसहारा है। अपने ही देश और घर में घृणित व
अपमानित हैं और हम अपनी जड़ सामाजिक-संरचना प्रदत्त मूर्खतापूर्ण प्रसन्नता लिए
घूम रहे हों और दिल को खुश रख रहे हों। इस पर विद्यार्थी जी ने तीखा तंज कसा
था। उनकी दृष्टि बड़ी पैनी थी। वे अपने लक्ष्य से कभी भटकते नहीं थे और न ऐसा
कोई अवसर वे हाथ से जाने देते थे।
'सुगमता की माया' शीर्षक लेख 3 मई 1920 के साप्ताहिक प्रताप में छपा, जिसमें
विद्यार्थी जी ने अपनी सैद्धांतिक दृढ़ता का परिचय दिया है। वे साध्य और साधन
की शुचिता के पक्षकार थे। उन्हें यह बात स्वीकार नहीं थी कि छोटे रास्तों व
गलत तरीकों से जो सुगम व सरल हैं, सफलता पाई जाए। इसीलिए वे जीवन में ऊँचे
नैतिक मानदंडों के कट्टर समर्थक थे। मूल्य और सिद्धांत, आज सामाजिक क्षेत्र और
राजनीतिक क्षेत्र में विलुप्त हो गए हैं। इनकी बात करना स्वयं को गँवार और
मूर्ख साबित करना है, लेकिन विद्यार्थी जी ने आजीवन सिद्धांत व मूल्य की
राजनीति की। वे विरल उदाहरण है। उन्हीं के शब्दों में देखिए - ''काम करने के
दो मार्ग हैं। एक तो यह कि आगे बढ़ा जाए, परंतु आदि से लेकर अंत तक नैतिक
आधारों को न छोड़ा जाए। दूसरा यह कि, काम हो और फिर चाहे जिस तरह नैतिक आधारों
के बल से या उन्हें छोड़कर। पहले ढंग से काम करने वाले अपनी दृष्टि के सामने
नैतिक सिद्धांतों को रखते हैं। वे उन उसूलों के बल जीते हैं और उन्हीं पर मरने
के लिए तैयार रहते हैं। वे उसूलों पर शहीद होकर अपनी लाशों का जीना तैयार करते
हैं और ऊपर चढ़ने की लालसा रखने वाले पथिक को इस जीने पर कदम रखते हुए
आकाश-चुंबी चोटी पर पहुँच जाने का संदेश देते हैं। दूसरा मार्ग पास का है। दूर
तक चलकर यात्रा तय करने की इच्छा नहीं की जाती। सुगमता का ही सदा सहारा लिया
जाता है। सिद्धांतों के लिए रुकने या ठहरने की कोई आवश्यकता नहीं। जिस ढंग को
तुम घृणित समझते हो, यदि उससे भी तुम्हारा काम होता दिखाई पड़े - जो कभी यथार्थ
में नहीं होता, क्योंकि आचरण की यह विषमता उसी ढंग की एक के बाद दूसरी नई
पहेली खड़ी किए बिना नहीं रह सकती - तो मत चूको, फौरन प्रहार कर दो। मनुष्य से
पशु और अंत में पशु से भी गिरे हुए बन जाओ।''
विद्यार्थी जी स्पष्ट मानते हैं कि लक्ष्य प्राप्ति के लिए किसी भी मूल्य पर
अनुचित व अनैतिक तथा सिद्धांतविहीन आचरण उपयुक्त नहीं है। यह हमें मनुष्य की
श्रेणी से पदच्युत करता हुआ पशु और उससे भी नीचे की कोटि में डाल देगा। ऐसा आज
कहाँ है? स्वार्थ की अंधी दौड़ में कामयाबी ही एक मात्र जीवन-लक्ष्य और सूत्र
है। सिद्धांत व मूल्य गए जमाने की बाते हो गई हैं, किंतु विद्यार्थी जी 'कथनी
व करनी' में कोई पार्थक्य नहीं था। 'हमारा सार्वजनिक जीवन' और सार्वजनिक
सदाचार' शीर्षकों से उनके दो वैचारिक निबंध हैं, जो क्रमशः 28 जून, 1920 व 17
अप्रैल, 1924 को साप्ताहिक 'प्रताप' में प्रकाशित हुए थे। दोनों लेखों में
विद्यार्थी जी ने सार्वजनिक जीवन की महिमा की चर्चा करते हुए इस जीवन का चयन
करने वाले लोगों को आगाह किया है कि उनसे समाज की क्या-क्या अपेक्षाएँ हैं?
उन्हें किस तरह अपने आचरण का ध्यान रखना चाहिए। दोनों ही निबंध अत्यंत
महत्वपूर्ण हैं। विद्यार्थी जी की स्वयं की सार्वजनिक जीवन के प्रति धारणा की
स्पष्ट अभिव्यक्ति, इन निबंधों में हुई है। वे दुखी मन से कहते हैं कि ''देश
में सार्वजनिक जीवन की बड़ी कमी है। जो कुछ है भी, वह दुर्भाग्य से ऐसा मलिन और
निस्सार है कि हताश होकर किसी-किसी समय यह करना पड़ता है कि वह न होता तो अच्छा
होता।''
आज सार्वजनिक जीवन जी रहे राजनेताओं की कैसी-कैसी छवियाँ हैं, यह अलग से
रेखांकित करने की आवश्कता नहीं है। नेता-गण अपनी स्वीकृति व लोकप्रियता को
लेकर संशकित हैं। कारण है, एक बार चुन लिए जाने पर जनता के दुख-सुख से उनके
सरोकार खत्म हो जाते हैं। वे कोल माइन्स के पट्टे, खेल-टीमें खरीदने व नाना
भ्रष्टाचारी कार्य-व्यापारों में संलग्न होकर अपनी कई पीढ़ियों की सुरक्षा में
व्यस्त हो जाते हैं। इसीलिए उन्हें जनता स्वीकार नहीं कर पाती है। इसके विपरीत
गांधी जी का सार्वजनिक जीवन था जिसकी विद्यार्थी जी भूरि-भूरि प्रशंसा करते
हैं - ''महात्मा गांधी ने भारतवर्ष घर के ही राजनीतिक दृष्टिकोण को परिवर्तित
नहीं किया, उन्होंने संसार भर के राजनीतिक दृष्टिकोण में परिवर्तन कर दिया है।
अभी तक हम लोग यह समझते थे कि जीवन को कई हिस्से में बाँटा जा सकता है और यदि
किसी व्यक्ति के सावर्जनिक और व्यक्तिगत जीवन में मध्यांतर हो तो भी कोई बात
नहीं। परंतु महात्मा जी ने अपने वैयक्तिक आचरण की महानता तथा अपने उच्च
आदर्शों के व्यवहार से यह सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक और वैयक्तिक जीवन में
जो अंतर दिखाई देता है। वह बहुत नगण्य और मिटा देने के योग्य ही है। यही कारण
है कि आज देश के सामने वह आदमी, जिनकी जीवन-तरणि अंधकार की शिला से टकराहट
बहती है, अपने नेतृत्व की छाप नहीं जमा सकता।''
विद्यार्थी जी का स्पष्ट मत है कि, अच्छा नेता वही हो सकता है, जिसका अपना
व्यक्तिगत व सावर्जनिक दोनों ही जीवन सदाचार व नैतिकता से संपन्न हो, जैसा
महात्मा जी के साथ था। महात्मा गांधी की बतौर मार्गदर्शक व्यापक स्वीकृति थी।
वे देश में भगवान की तरह आदरणीय व पूज्य थे तो विदेशों में भी उनकी छवि एक
उच्च नैतिक मानदंड वाले व सहिष्णु नेता की थी। गांधी जी का सत्ता के गलत
निर्णयों के विरोध के तरीके नैतिक थे। यही वजह है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी
शक्तियों को उनके आगे झुकना पड़ता था और गांधी जी ने अपने जीवन ओर आचरण से यह
सिद्ध कर दिया है कि विजय सत्य व नीति की होती है। समय भले ही ज्यादा लगे।
उन्होंने अँग्रेजों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन छेड़कर उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर
कर दिया था। यह सत्य व उसके प्रति गांधी जी की विशेष निष्ठा का प्रतिफल था। आज
सार्वजनिक जीवन का परिदृश्य पूरी तरह बदला हुआ है। घोटालों की भरमार है।
चिकित्सा, शिक्षा, लोक निर्माण आदि कोई भी विभाग अछूता नहीं है। सार्वजनिक
जीवन से प्रतिबद्धता, सिद्धांतप्रियता व जन-कल्याण केंद्रीयता गायब हो गई है।
अजीब विडंबना की स्थिति है। विद्यार्थी जी के समय में भी गिरावट दिखाई देने
लगी थी, तभी तो उन्होंने इसकी जबरदस्त नोटिस ली, किंतु उनके समय तक रफ्तार कम
थी।
विद्यार्थी जी का संकल्प सशक्त, नैतिक और उच्च आदर्शों वाला भारत था। ऐसा भारत
सिर्फ बात करने से या स्वप्न देखने से निर्मित होने वाला नहीं था। विद्यार्थी
जी यह सत्य जानते थे, तभी तो उन्हें आरंभ से ही इस दिशा में प्रयास शुरू किए।
उनके सांगठनिक प्रयास व उनका पत्रकारिता का जीवन इसके साक्षी हैं। उन्होंने
अपने 'ड्रीम भारतवर्ष' के लिए आत्मोसर्ग की महिमा पहचानी 'मानव स्वत्व' का
मूल्य जाना और सार्वजनिक जीवन की शुचिता को अत्यंत महत्वपूर्ण माना। इनके साथ
ही उन्हें यह भी महत्वपूर्ण लगा कि, देश की स्वाधीनता का लक्ष्य तब स्वप्न
सरीखा ही होगा, जब तक कि, हम हिंदुस्तानी लोग संगठन की शक्ति को नहीं पहचानते
हैं। 'हमारी विशृंखलता' शीर्षक निबंध में विद्यार्थी जी ने देशभर में
राजनीतिक-क्षेत्र में हो रही अराजकताओं, मनमानियों पर तीखी टिप्पणी की और कहा
कि, 'हमें अपने विकारों को राष्ट्रीय इच्छा की वेदी पर न्यौछावर कर देना
चाहिए। उनका यह लेख 1927 में 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था।
विद्यार्थी जी के आरंभिक वैचारिक निबंध लक्ष्य-केंद्रित, प्रभावशाली और तैयारी
से लिखे गए हैं। वे अपने लेखों से देश में जागरण की लहर प्रवाहित कर रहे थे।
बिना डरे, बिना झुके या बिना समझौता किए। उन्हें इसके लिए बहुत बार अपना पत्र
बंद करना पड़ता था, जेल जाना पड़ता था, किंतु वे देश के स्वाभिमान के मूल्य पर
कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं थे। सबसे बड़ी बात, इस संबंध में यह है कि,
अल्पायु होते हुए भी उन्होंने जितना काम किया है, वह दीर्घायु पाए लोगों के
बूते से बाहर था और अपने सिद्धांतों/मूल्यों व प्रतिबद्धताओं के लिए उन्होंने
स्वयं को बलिदान कर दिया और इस प्रकार मात्र 14 वर्ष की आयु में उनके
मन-मस्तिष्क को आंदोलित करने वाले 'आत्मोत्सर्गता' के विचार को उन्होंने मूर्त
कर दिया। आज ऐसे लोग विरल हैं। विद्यार्थी जी की 'कथनी और करनी' में कोई अंतर
नहीं था।